in

मन की दुनिया

रास्ते पर कदम

बढ़ाये थे

एक उत्साहित मन से लेकिन

मंजिल तक पहुंचते पहुंचते

हतोत्साहित हो गई

घर लौटकर

अपने कमरे में बंद होकर

फिर से जीवन्त हो उठी

मुझे ऐसा लगने लगा है और

यह सच भी है कि

एक सुंदर दुनिया कहीं अपने घर में ही है

मन की दुनिया बाहर की दुनिया से

कहीं अधिक भव्य और संवेदनशील है

दुनिया की भीड़ कोई उपवन नहीं

फूलों का महकता कोई दर्पण नहीं

इसमें संवेदनहीनता है

शून्यता है

कोई मानवता नहीं

कोई अपनत्व नहीं

कोई पूर्णता नहीं

यह तो तन बदन में,

मन में,

आत्मा में शूल से चुभाती है

घर में कितना सुकून मिलता है

एकांत में

तन से मन की फिर

मन से आत्मा की फिर

आत्मा से परमात्मा की दूरी

पलक झपकते ही

तय होती है।