न जाने क्यों तुम्हारी नज़दीकियाँ
ख़ामोशियों की चादर बुनती हैं।
हया की चिलमन के पीछे से
अनकही बातें भी सुनती हैं।
मेरे गेसुओं में पहाड़ी नदी सी फिसलती
तुम्हारी उंगलियाँ…
इंतेहाई इंतज़ार में बीतीं रातों के चाँद
ढूँढ़ती हैं
और…
किसी शफ़ाखाने के मियाँ हक़ीम सी
तुम्हारी आँखें,
इक अरसे से बंद पड़ी
इस उधड़ी सी जिल्द के भीतर का
मजमून पढ़ती हैं।
गर जो सच कहूँ तो…
तुम्हारी ये नज़दीकियां,
मुझे मेरे वजूद से लिपटा
एक रेशमी सा पैरहन लगती हैं।