नज़दीकियाँ कमतर हुईं,
फ़ासले भी कम ना हुए।
जज़्बातों के दरिया में,
डूबते उबरते हम रह गए।
हमसफ़र की तलाश में,
हमक़दम भी ना बन सके।
साथ चलने की चाहत थी,
रहगुज़र भी ना रह सके।
वो बेवफ़ा क्यूँ कर समझे,
वफ़ा क्या होती है बला?
हो मायूस भटकना ज़िंदगी के,
गुमनाम गलियों में भला!
दरमियाँ हमारे आस भी था,
डर सा समाया तुम्हें खो कर।
बेख़ौफ़ जीने की तमन्ना,
दफ़्न हुई एक आह बन कर!
ग़र साथ मिला होता जो तेरा,
वो नज़ारा कुछ और ही होता।
एक अलग दुनिया होती,
अनोखा एक मंजर होता!