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गाय की टांग

परसों शनिवार की बात है। मेरे बाथरूम की खिड़की से एक सकरी गली दिखती है जो मुख्य सड़क पर जाकर खुलती है। मैं उस खिड़की से जब तब बाहर की तरफ झांकती रहती हूं।

परसों देखा एक गाय आराम करने के लिए मंदिर की दीवार से सटकर बैठ गई लेकिन उसकी एक पिछली बायीं टांग गली की तरफ फैली हुई थी।

कोई दो पहिया वाहन के निकलने के लिए जगह बहुत कम थी। किसी की थोड़ी सी चूक हुई नहीं कि किसी भी वाहन का पहिया उसकी टांग पर चढ़ सकता था और वह जख्मी हो सकती थी।

देखते देखते तीन चार दो पहिया वाहन वहां से निकले लेकिन गाय की टांग को बचाते हुए। गाय ने अपनी टांग को समेटने की कोई कोशिश नहीं करी।

मुझे गाय की बहुत चिंता हुई। मैं सोच ही रही थी कि तत्काल प्रभाव से गाय के पास पहुंच उसकी टांग की स्थिति ठीक करवाऊं या उसे उठा दूं। उसकी टांग गर जख्मी हो गई तो जब आदमी को आजकल कोई नहीं पूछ रहा तो उसे कौन पूछेगा। उसकी देखभाल कौन करेगा।

उसके पास तक पहुंच पाती इससे पहले वह खुद-ब-खुद खड़ी हो गई। जो मैं सोच रही थी वह भी शायद वही। मैं इंसान हूं बोलकर अपने भावों को व्यक्त कर सकती हूं लेकिन वह भी समझदार है। खुले आसमान के नीचे सड़कों पर दर-दर भटकती है। इस दुनिया के वहशीपन को शायद मुझसे बेहतर समझती है।