आज़ाद परिंदे: वर्षा सरन द्वारा रचित कविता


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अनमनी सी चलती हुई वो सोचती है मन ही मन काश! मैं भी उड़ जाती इन चिड़ियों संग,
होती आजाद तो रहती बेफ़िक्र
चहचहाती इधर उधर और गाती गीत हो मदमस्त,
पर ये जिम्मेदारियों का बोझ कैद कर देता है इस पिंजर को जिंदगी के घुप्प से तहखाने में जहाँ साँस को भी साँस नहीं,
 दिखता कोई हसीं आसमानी लम्हा नहीं
बस काम की ही दरकार है,जरूरतों की उठापटक में बासी होती मुस्कान है,
उसने कहा भी चलो जाओ कुछ दिनों घूम लो मुक्त आकाश में पर घर आँगन के जंजाल में फँसी एक आम औरत बस यूँ ही टकाटक देखती है आजाद परिंदों को
और आँखों को मिचमिचाती हुई, थोड़ा बहुत खिसियाती हुई ,दफ़्तर और घर की रस्साकशी में माथे का पसीना पोंछ कर,
 हवाई मुस्कान के साथ कहती है बड़े ही फिक्रमंद हो ओहहो, बहुत काम है आज तो
किसको वक्त है आज़ाद परिंदे बनने  को!

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