in

Ummeed: A poem by Pratima Mehta

आज के संदर्भ में भय और आशंका का व्यूह रच गया है।
भ्रम और भ्रांति का भ्रमजाल बिछ गया है।
अन्धकार का महासिंधू प्रकाश को लीलने को आतुर है।
अप्रत्याशित  आपदा की उद्दाम आंधी अतिक्रमण को प्रतिबद्ध है।
अघोषित समय चक्र स्थिर ,निशब्द और निस्तब्ध हैं।
बंधी है वाणी, बंधनमय हो गई गति है।
वर्जनाओं और प्रतिबंध की लक्ष्मणरेखा खींच गई है।
स्वयं संग हर कोई हुआ स्वयं से आबद्ध है।
अदृश्य रक्तबिजी शत्रु बांह पसारे आक्रमण को तत्पर है,
प्रवाह के साथ असंख्य रक्तबीजों को रक्त में रोपने को लालायित।
मनुजता की विरासत को नेस्तनाबूद करने का दृढ़ निश्चय किए हुए।
पर क्या ये सक्षम है हमारी,उम्मीद की लौ को बुझाने में 
माना बंद है द्वार ,बंद है वतायान पर दरारो से आने को है
आस उजास की
झंझावतों के चक्रव्यूह को तोड़कर रचने को है, नव इतिहास।
निराशा के पतझड़ के बाद नववसंत फिर खिलने को है।
निस्पंद निशी का  प्रातः में विलय अवश्यंभावी  होने को है
उम्मीद की बुझती लौ को सहेज कर विश्वास के दीपो की श्रंखला सजने को है।
श्वासो की गणना निश्चित है, पर श्वास पर प्रतिबंध को नकारना है।
समर अभी शेष है, पर विश्वास अजेय है।
प्राची की अरुणिमा का आवाह्न होने को है।
आगत समय रथ को सार्थने उम्मीद का सारथी प्रगट होने को है।
जीवन रण में जीत की दुंदुभी बजने को है।।