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Ummeed: A poem by Nisha Tandon

थक कर रुक जाते हैं क़दम कईं मर्तबा, तो दिल संजीदा होता है
शमा के इंतेज़ार में परवाना तू क्यों बेवजह रोता है

तू इश्क़ नहीं जुनून है मेरा , ये शमा से परवाने का कहना है
किसी जनम तो हम मिलेंगे , इस उम्मीद में मुझे ज़िंदा रहना है

जलकर ख़ाक हुआ जिसके इश्क़ में वो परवाना तो गुमनाम है
क़ुर्बान हुआ जिस शमा पर वो भी तो आख़िर बदगुमान है

कभी उम्मीद की रोशनी है कभी वो नाउम्मीदी के अंधेरों से घिरा है
कहीं मंज़िल का निशाँ नहीं, तो कहीं रास्ता भी उसका गुमशुदा है

बंद मुट्ठी में ऐ परवाने अपनी तू आख़िरी उम्मीद को छुपाए रखना
इबादत में खुदा की तू बस अपनी ये नज़रें झुकाए रखना

करेगा ख़ुद पर जब यक़ीन तो परवाने हर मुश्किल तेरी आसाँ हो जाएगी
ठुकराया था जिस शमा ने तुझे वो ख़ुदबख़ुद एक दिन लौट आएगी

क़िस्मत में उसके भी जलना लिखा है तभी तो शमा बेज़ुबान है
मजबूरी है वो उसकी ,बेवजह ही उसपर बेवफ़ाई का इल्ज़ाम है

जल कर ख़ाक जो हो गया तू तो दुनिया दोनों की ही वीरान होगी
तू हो गया क़ुर्बान इश्क़ में माना, मगर शमा भी तो तेरे बिन बेज़ान होगी

लहरों सी मचलती ज़िंदगी की कश्ती में उम्मीद ही तो एक पतवार है
ये तुझ पर ही निर्भर है कि जल कर बुझ गया या फिर जीत कर उस पार है

उम्मीद का दामन थामेगा तो कभी तो शमा तुझ पर मेहरबान होगी
हो जाएगी तेरी, इस क़दर वो दुनिया से फिर अनजान होगी