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Shringaar: A poem by Surekha Sahu

कैसा हो श्रृंगार तन का, उससे है ज्यादा अहम्
कैसा किया है श्रृंगार, तुमनें  अपनी   वाणी  का
अंतर्मन में  अंगड़ाई लेते हुये अपने विचारों का,
और कैसे कर रहें श्रृंगार, तुम अपनी आत्मा का …..
 
करो श्रृंगार, वाणी का,  कर अहंकार का दहन
हो वाणी मृदुल, मोहक और झलकाती शिष्टता
हो उसमें मधुरता, कोमलता और हो शीतलता
मुग्ध करे वाणी तुम्हारी, मन हर सुननेवाले का …..
करो  श्रृंगार, तुम अपने विचारों का, कर दमन
घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, नकारात्मकता के ख्यालों का
छोड़ दूसरों को गिराने की चाह,भाव बदले का
दूर कर निराशा,हताशा जगाओ सकारात्मकता ….
करो श्रृंगार, तुम अपनी आत्मा  का, कर जतन 
अपनाकर दया भाव,  अध्यात्म  और नैतिकता
अद्भुत, अनुपम व अतुलनीय यह श्रृंगार होता
दूसरों के लिए मन में हो प्यार,ऐसा करो श्रृंगार ….
कर लिया श्रृंगार इन सबका, तो करेंगे सब नमन
बिना यंत्र – मंत्र – तंत्र, दूसरों को बना लोगे अपना
समझो, तन की सुंदरता से बड़ी, मन की सुंदरता
करा ऐसा श्रृंगार तो जीवन रहेगा सदा ही महकता ….