in

Shringaar: A poem by Dr. Suresh Kumar

ना अंजन, ना श्रृंगार, अद्भुत तेरी सौन्दर्य छटा,

तन यौवन का चरमबिन्दु, अधर खुले, बरसे घटा,
बंद पलक में निशा बसे, खुली पलक में भोर,
हृदय-मुग्ध करती हो प्रतिपल, इत-उत व चहुँ ओर.[१]

बिन घुँघरू पग अतिशोभित, बिन कंगन ये हस्त,
प्रकृति-अंश समान ये काया, करे सदा मदमस्त,
मनु तुम-पर मन से मरा, इतना सुन्दर रूप,
तुम सावन हो, तुम बरखा, तुम हो रति स्वरूप. [२]

सूरज माथे की बिंदिया, चंदा कर्णों की बाली,
शब्द अधर से जो निर्मित हो, हर बात लगे निराली,
अंतर्मन में बस जाये, ऐसी मूरत तेरी,
जो सौन्दर्य का शिखर-बिन्दु हो, ऐसी सूरत तेरी. [३]

मृदु वाणी, सरल आचरण ये तेरे श्रृंगार,
अग्रज, अनुज, नर-नारी, करें तुम्ही से प्यार,
तुम उदाहरण हो श्रृंगार का, तुमसे ले सब सीख,
सु-आचरण की देवी, दो इसी श्रृंगार की भीख. [४]