ना अंजन, ना श्रृंगार, अद्भुत तेरी सौन्दर्य छटा,
तन यौवन का चरमबिन्दु, अधर खुले, बरसे घटा,
बंद पलक में निशा बसे, खुली पलक में भोर,
हृदय-मुग्ध करती हो प्रतिपल, इत-उत व चहुँ ओर.[१]
बिन घुँघरू पग अतिशोभित, बिन कंगन ये हस्त,
प्रकृति-अंश समान ये काया, करे सदा मदमस्त,
मनु तुम-पर मन से मरा, इतना सुन्दर रूप,
तुम सावन हो, तुम बरखा, तुम हो रति स्वरूप. [२]
सूरज माथे की बिंदिया, चंदा कर्णों की बाली,
शब्द अधर से जो निर्मित हो, हर बात लगे निराली,
अंतर्मन में बस जाये, ऐसी मूरत तेरी,
जो सौन्दर्य का शिखर-बिन्दु हो, ऐसी सूरत तेरी. [३]
मृदु वाणी, सरल आचरण ये तेरे श्रृंगार,
अग्रज, अनुज, नर-नारी, करें तुम्ही से प्यार,
तुम उदाहरण हो श्रृंगार का, तुमसे ले सब सीख,
सु-आचरण की देवी, दो इसी श्रृंगार की भीख. [४]