in

Sarhad: A poem by Anjali Sharma

 

खींच लकीरें धरा के वक्ष पर, बाँध दीं हमने सीमायें

‘ये तेरा’ ‘ये मेरा’ के व्यूह में, बिखरी कोमल भावनाएं

बंटी ज़मीं, गाँव, चौपाल, पर कैसे बाँटें मन के धागे

सुख दुख के साथी संगी, बिन नाम के कितने नाते

बिछड़े जिनके अपने, छूटे खेत खप्पर खलिहान

राजनीति के यज्ञ में, आहूत निर्दोष बलिदान

बूढ़ी अम्मा मृत्यु शैय्या पर, खोजे पुरखों की हवेली

नन्ही नज़मा ढूंढ रही, गुड़िया जो रह गयी अकेली

रज़िया का बेटा छूटा, रह गयी हाथ बस एक गठरी

बलबीर पथराई आँखों से, देखे आती रेल की पटरी

उड़ते खग न जानें सरहद, विचरें स्वछंद गगन में

सलिल सरिता का न मज़हब, बहे हर वन उपवन में

सागर का रंग है एक, एक रंग सूरज की लाली

धरती के हम पुष्प अनेक, रंगत सबकी है निराली

हर सरहद से है सर्वोपरि, मानवता का मर्म

बाँट सके न दिलों को, हो प्रेम हमारा धर्म।