Raat aur din: A poem by Nisha Tandon


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दिन थक कर जब हारे उसे बेसब्री से रात का इंतेज़ार होता है
और फिर ना जाने कितनी दफ़ा वो उसकी नाज़ोंअदा से बेज़ार होता है

धीरे धीरे रात का समा तनहा और कुछ मदहोश हो जाता है
और बेफ़िक्री भरे आलम में ये संसार नशे में सो जाता है

जब तलक़ ना ख़्वाबों में इश्क़ से बात पूरी होती है
तब तलक़ उस रात की मियाद बस अधूरी रहती है

अलसाए हुए सी रात अंगड़ाई लेकर दिन को आवाज़ लगाती है
तब दबे पाँव आकर भोर सारे जहाँ पर अपना आँचल फैलाती है

रात घमंड में चूर दिन से कहती है कि तुम मेरे बिन अधूरे हो
इतरा कर दिन कहता है कि तुम मेरे बिन कौन सा पूरे हो

गुज़ारा नहीं बिन एक दूसरे के फिर भी तकरार में इनकी ज़िंदगी गुज़र है
नील आसमाँ के तले ही तो दोनों का अपना अपना जहाँ बसर है

दिन चढ़े पाखी अपने ख़्वाबों का आशियाना बनाते हैं
साँझ होते ही वो थक हार अपने घर लौट आते हैं

बस यूँ ही दिन और रात की अठखेलियों का दौर चलता रहता है 
और वक़्त का कालचक्र बिन थमे आगे को बढ़ता रहता है

हर बार साँझ और सहर का जिस लम्हे मिलाप होता हैं
तब दूर क्षितिज पर कभी सूरज का अंत तो कभी हसीन आग़ाज़ होता है

उम्मीद के दिए जलते हैं और रोशन जहां भी तभी होता है
जब हर रोज़ रात और दिन का मधुर मिलन होता है






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