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Mausam: A poem by Rajni Sardana

कुदरत की रची सृष्टि में मौसम बदलते रहते हैं 
गर्म-सर्द,सूखे-गीले का अहसास कराते रहते हैं

इन सब में मुझको ऋतुराज बसंत बहुत है भाता
जब भी आता,सारी प्रकृति में इक नई उमंग भर जाता

मन मेरा कहता,ए बसंत सुनो,तुम मुझे राग बसंत सुनाना
पतझड़ से सूने जीवन की बगिया को महकाना

कह देना तितलियों से फिर बाग में टहलने आयें
अपना सुन्दर रूप दिखा कर सबका मन मोह ले जायें

भवरों को करना आमंत्रित गुन-गुन गीत सुनायें
किसी फूल का रस पियें और किसी के प्रेम-पाश में कैद हो जायें

विनती पवनदेव तुम से, पीली सरसों को नचाना
झूले पर जब झूलें सखियाँ हवा
का वेग बढ़ाना

धरा की हरी चादर पर हर ओर ओंस की मोतियों देतीं दिखाई,
तुम्हारे आने से लगता ऐसे जैसे प्रेम ऋतु है आई

नये नये कपोल फूटते नवजीवन का होता संचार
उल्लास रचाते आते कितने इस ऋतु में मनभावन त्यौहार

कोयल की मीठी बोली कानों में मीठा रस घोलती है
बसंत ऋतु के मौसम में प्रकृति अपने सौन्दर्य के चरम रूप में डोलती है