हरीतिमा का आलिंगन कर आया सावन मास
बरबस ही रीता मन हुआ हर्षित
सखि री करुं मैं सोलह श्रृंगार।
भर लूँ जल भरे नयनों में अंजन
माथे टीका, ललाट पे कुमकुम सोहे
कोमल कलाईयों में हरी -हरी चूड़ियां खनके।
रचा कर हथेलियों में मेहँदी मैं हरषाऊँ
पैरों में महावर देख, नूपुर छनके छन -छन
मन मयूर नाच उठे, तन ने ली अंगड़ाई।
मुझ पर नव तरुणाई आयी
रोम -रोम हुआ पुलकित ,गजरा महके
नव वधू सा श्रृंगार, रति सा रूप दमके।
ना मिले नौलखा हार या ,रत्नजड़ित बाजूबन्द
सुन सखा मेरे, नारी है अनमोल
बिन बाह्य श्रृंगार के भी मनमोहिनी
मन मेरा चन्दन सा निर्मल-सुंदर
वाणी से स्नेह मुकुन्द झरे
करुणा, दया, क्षमा अन्तः आभूषण मेरे।
आँचल में अनुराग, ओढ़े सौभाग्य की चुनरी
क्या गहने कर पायेंगे वो श्रृंगार!