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Khwaahishein: A poem by Sunita Singh


ख्वाहिशें गुबार सी, उड़ी चली बयार में।
तेज धार वार की, मिली हमें मयार में।।

गल गई वहीं जहाँ, अमृतों की धार थी।
जोड़ देंगी ताकतें, कुछ रही ये आस थी।
आसमान फट पड़ा, काल सामने खड़ा,
ख्वाहिशें सिहर गईं, देख बाढ़ आपदा।
बार-बार वापसी, बारिशें जो तामसी,
कोपलें उगी नहीं, कि मर चलीं दयार में।।
ख्वाहिशें गुबार सी, उड़ी चली बयार में।

पाँव राह में छिले, शूल हर कदम मिले,
धूप जेठ की रही, नूर में धुएं पले।
बरगदों सी हसरतें, दिल के आसमान में,
खुद खुदा ही बन गईं, पीड़ा के जहान में।
शूल का तो धर्म था, चुभा किया बिना दया,
फूल भी न सुन सके, कराह को पुकार में।
ख्वाहिशें गुबार सी, उड़ी चली बयार में।।

पूरी कुछ हुईं मगर, उनकी क्या अदा रही?
कायनात जान पर, जाने क्यों फिदा रही?
बस रही मरीचिका, अस्थि ज्यौं दधीचि का,
दान मांगती रही, दर्द की विभीषिका।
घुल गया वजूद में, दर्द रक्त बन गया,
चाहतें चलीं जली, दिये सी अंधकार में।
ख्वाहिशें गुबार सी, उड़ी चली बयार में।।

( मयार-दयालुता, दयार–दुनिया )