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Karo har zid ka Visarjan: A poem by Balika Sengupta

****करो हर जिद का विसर्जन *****
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दीवारों दरख्‍त,ताजों तख्‍त,
दरकते,छिटकते,बिखरते, रिश्‍ते,
मासूम दिलों की जमीन हुई बड़ी सख्‍त
लौटे न वो गुजरा जमाना, हाय कम्बख्त,
एहसासों के आदान-प्रदान की गुजारिशें,रह गयी परित्यक्त
बंद दरवाजों की तासीरें कर रहीं थीं,तमाम कहानियां, व्‍यक्‍त…
भूतकाल के धुएं,परछाईयां,कसमसाकर रह गयी थी अव्‍यक्‍त
कहां कहां से हटाएं जंग,या तोड़े ताले,लगे पड़े थे, “गलतफहमियों वाले” वक्‍त के जाले,
कौन कहाँ से आकर,वापस,यादों,दर्दों की,
कब्रें खोदकर निकाले,पायें हकीकत,
किसी को कहां पड़ी है अब, कौन रह गया है बैठा,
प्रेम के धागे तोड़कर,गांठ,जो पड़ी थी बरसों पहले,
सभी जो मन आए, सोचे, समझें, बुझे पड़े बैठे,
हजारों, लाखों, सवाल, गलतफहमियां ,
कहते, क्‍यों? मुझे ही क्‍यों समझना, सीखना?
किसकी क्‍या मजाल, क्‍या जुर्रत?
‘’मै’’‘’मै’’के इस मकड़जाल में,मै ही क्‍यों निकलूं फुर्सत?
ये अतीत,चीख-चीख,क्‍यों रहा पुकार,क्‍या कर रहा अभिव्‍यक्‍त?
अतीत के,अब रह गए,ठूंठ पेड़ की,कहां गई वो छांव, वो हरियाली
क्‍यों रह गया वर्तमान चीथड़े में,पड़े थक्‍के रक्‍तरंजित, भविष्‍य के जड़ों की,हर मासूम कोशिकाएँ,
केन्‍द्रीकरण के विकेन्‍द्रीकरण से अपोषित,कुपोषित हो, रह गयी ‘’रिक्‍त’’
मौन, धूमिल,कुहासा,धूंध,श्‍मशान की अवांछित शांति,
कर रही अशांति से बात,
होनी और अनहोनी के,निश्चित और अनिश्चितताओं के परोक्ष और समक्ष,
’ज्ञात’’आज सर्वस्‍व,बना रह गया’अज्ञात’’
शानो शौकत,सारी दिखावटी सराफत, सारे ताम-झाम हुए लोपित,
करते बगावत,कुमंत्रणाएं सर्वदा लातीं आफत,
आह,क्‍यों आज भाईचारा,द्वार के बाहर,
कातर करूण दृष्टि से देख रहा,अशक्‍त
अहो,अब बाकि रहा क्‍या,कहो? क्‍या नहीं दौड़ता?
रगों में,तुम्‍हारे भी,लाल ही लाल रक्‍त?
फिर,क्‍या रहा फर्क,तुझमें मुझमें,रोको न खुद को,बनो सशक्‍त…
ये”खरीद- फरोख्‍त’का बाजार,बाजारवाद बड़ा और बुरा
तोड़ दो,हर ताले और दीवारें,हर वो विभाजन,
करो हर जिद का विसर्जन,लौट आओ वापस, देश में अपने
होकर मुक्‍त, युक्तियुक्‍त और संयुक्‍त,

ओ प्रवासी, हाथ से हाथ मिला, बनो फिर से एक परिवार, एक दूजे की ताकत।।