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Holi: A poem by Mukesh Kumar Badgaiyan

हाँ! 
होली रंगों का त्यौहार —
सब बाँटेंगे अपनों का प्यार 
अपने कौन! हाँ सब -घर, परिवार, आस-पड़ोस, गाँव, शहर, अपना पूरा देश -अपना स्वर्ग, अपना संसार! 
रंग बेरंग लगेंगे —
आँखों में आँसूओं से रंग फीके पड़ जाएंगे, 
घर में पापा रह-रहकर याद आएँगे 
नये-नये रंग सबको बाँट ,दूर चले गये हमसे ,
जहाँ रंगों के कारखाने हैं, हमें ढेर सारे रंग भेजने के लिए! 
होली तो दोनों जगह सूनी-सूनी होगी-घर पर रंगों के बरगद के बिना —
और देश में-पुलवामा में नहीद सैनिक के घर ,अपने घर में —
माँ की आँखों में आस, बेटी के नन्हें फैले हाथ, 
पत्नी और बेटा की नोंक झोंक कि -मैं पापा से कहूँगा, 
बहिन की आरती की थाली, दादा-दादी का चहेता —
आज होली पर घर होता तो क्या कहूं?कैसे कहूँ? 
कितना अच्छा होता! न घर रोता, न देश रोये! 
बनकर रक्षा कवच 
बेटे ने समा ली गोली 
ताकि सारा देश खेले होली! 
अमन-चैन की नींद सारा वतन सोये।