रूबरू गर तुम आ जाते, तो दिल खोल कर तुम्हें बताते
आँसुओ का सागर आँखों में, ग़मों की बरसात दिल में
दिल पे दस्तक तुम गर देते, जज़्बात से दामन तेरा भिगोते
मचाए हुए है हलचल सीने में, ग़म के समुंदर में उठा तूफ़ान
तनहा गर मिलते कभी, बहते ग़मों का सैलाब तुम्हें दिखाते
कभी पूछो तो इन बारिशों से, ग़म – ए – हिज्र का सबब
रात-दिन ग़म बरस रहा है, भीगते गर तो ख़ुद जान जाते
रात की तन्हाई में खामोशियों से गुफ़्तगू करते हैं ये ग़म
फ़ुर्सत के लम्हे में आते, तो सन्नाटे भीतर का शोर सुनाते
बहकने लगे हैं अब तो रात-दिन, ग़म के घूँट पी पी कर
इश्क़ का जाम गर पिलाते, ग़म से थोड़ा निजात पा जाते
पिघलने लगी है ये ज़िंदगी, ग़मों की तपन को सह कर
प्यार की बरसात में गर भिगोते, ज़रा सा सुकून पा जाते
घुट घुट के ज़ीस्त जी रहे हैं, ग़मों के बोझ तले दब कर
दिल के क़रीब गर आते , ये एहसास तुम्हें ज़रूर कराते
दर्द-ओ-ग़म के साये में, ओस की बूँदों सी ठहर गई ज़िंदगी
संवारते रात-दिन गर मेरे, दुआओं में होता है असर मान जाते
ज़ीस्त – जीवन, ज़िंदगी
रूबरू -आमने सामने, समक्ष
ग़म-ए-हिज्र – जुदाई का दुःख