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Diya aur baati: A poem by Richa Verma

बाती बोली  अपने दिये से 
सुनो!  बहुत बेचैंन  हो 
आओ, रुक जायें कहीं 
अब जायें थोड़ा सा  ठहर   I
बरसो से यूँ  तप तप कर
 संग चले कितनी  पहर,
और लड़े उन तूफानों  से ,
जो बुझा  सकते  थे हमें ,
 रोशनी की आस में ही
सभी तकते  थे  हमें I
सुनो! बहुत जल  चुके हैं 
क्या  मिला इस  आग से ?
कौन  सा  तम  हर  लिया है 
अपनी इस  आवाज से ?
साथ  कितना भी दिया
क्या समस्त   तम मिट सका?
जो अंधेरा  मन  का है 
क्या  वहाँ  दीप जल  सका?
जो मिटा  दे मन  का  तम 
  वो एक बाती ढूंढ  लाओ 
सच  कहूं  मै  ऐ  प्रिये !
तभी  दिया बाती कहाऊ …