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Bhay: A poem by Pushkar Rastogi

अंकुर जो बीज में  छिपा रह जाता, जीव जो गर्भ में सुरक्षित अपने को पाता, 
तो उसका खिलना असंभव था, विकास भी कहाँ संभव था..
ये समाज का भय,रीति रिवाजों का भय, 
कुछ खोने कुछ पाने का भय, नए पुराने का भय, 
आध्यात्मिक भी होते हैं भय..
भय है अहंकार की प्रतिछाया, 
हृदय  छोड़, बुद्धि में समाया..
भय इंसान को नीचे है गिराता, 
सही गलत का भेद मिटाता, 
कायरता को क्षमा है बतलाता..
जो जितना है अहंकारी,  
समझो भय का साया उस पर है भारी,
तब मानवता भी होती शर्मसार सारी..
यूँ तो पशुओं में भी होता है भय,
पर तब उनकी आत्मरक्षा का बनता यह  उपाय..
दूर होता तब ही, जब जड़ से इसको पहचाना जाय..  
आओ सब मिल कर नए समाज का निर्माण करें, 
खुद से खुद की पहचान करें,   
भय है सभी दुखों का मूल, 
क्यों न जाएं इसको भूल…..||