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Astitva: A poem by Dr. Suresh Kumar

धुंधली काली रातों में,
अन्जान सख्श़ को देखा..
हाथ में उसके खंज़र था,
और मृत्यु की रेखा.

वो जिज्ञासु, मृत्यु का,
उसकी अभिलाषा बाहुल्य.
पूर्णपदी वो जीव-हरण का,
कालपुरुष समतुल्य.

मृत्युवंश का वो शासक,
जीवन सम्पादित करता था.
सर्व भुजायें खुली हुई,
जीवन आगोश में भरता था.

इत्र-उत्र-सर्वत्र,
जाने वो किसको ढूंढ रहा.
मृत्यु-नृत्य करने वाला,
जाने वो किसको घूर रहा.

वह कालपुरुष अंधियारे मे,
जीव शून्य करने आया.
उस मृत्युप्रिय का पता नही,
किस-किस को हरने आया.

वह जीव-हरण में निपुण,दक्ष,
कालचक्र दौड़ाता था.
जीवन-पथ पर खड़ा हुआ,
मृत्यु मार्ग दिखलाता था..
वो अस्तित्व मिटाता था..
वो अस्तित्व मिटाता था।