ठंडी-ठंडी पुरवाई मन को जो भाती थी,
मौसम बदलते ही वो भी गर्म हो गई।
धरती की प्यास बूँद ओस की बुझाती थी,
गर्मी के आते ही वो जाने कहाँ खो गई।।
हरे-हरे खेतों में जो पीली सरसों खड़ी,
गेहूँ की बाली संग वो भी पकने लगी।
देश कहीं बीहू,कहीं बैसाखी मना रहा,
अन्नदाता की मेहनत रंग लाने लगी ।।
ठूँठ से खड़े थे पेड़,कोपलें हैं आने लगे,
और उपवन में भी फूल खिलने लगे।
शाम होते झींगुर भी गीत हैं गा रहे,
और जुगनू भी रात को चमकने लगे।।
बदला है मौसम और देश का मिज़ाज़ भी,
‘चौकीदार चोर है’ के नारे लगने लगे।
और कई सत्ता पक्ष के साथ में दिखते,
‘मैं भी चौकीदार हूँ’ के गीत गाने लगे।।
पूरे देश में चली है राजनीति की बयार,
नेतागण वोटरों को लुभाने लगे और
हर दल आते ही मौसम चुनाव का,
जनता को नए-नए सपने दिखाने लगे।।
मौसम चुनाव का बहुत गरमा रहा,
हर कोई वोटर का ध्यान भटका रहा।
सोच-समझ के वोट उसको ही करना,
जो देश और जन-हित के लिए खड़ा रहा।।