धुंधली काली रातों में,
अन्जान सख्श़ को देखा..
हाथ में उसके खंज़र था,
और मृत्यु की रेखा.
वो जिज्ञासु, मृत्यु का,
उसकी अभिलाषा बाहुल्य.
पूर्णपदी वो जीव-हरण का,
कालपुरुष समतुल्य.
मृत्युवंश का वो शासक,
जीवन सम्पादित करता था.
सर्व भुजायें खुली हुई,
जीवन आगोश में भरता था.
इत्र-उत्र-सर्वत्र,
जाने वो किसको ढूंढ रहा.
मृत्यु-नृत्य करने वाला,
जाने वो किसको घूर रहा.
वह कालपुरुष अंधियारे मे,
जीव शून्य करने आया.
उस मृत्युप्रिय का पता नही,
किस-किस को हरने आया.
वह जीव-हरण में निपुण,दक्ष,
कालचक्र दौड़ाता था.
जीवन-पथ पर खड़ा हुआ,
मृत्यु मार्ग दिखलाता था..
वो अस्तित्व मिटाता था..
वो अस्तित्व मिटाता था।