दरवाज़े पर जब भी दस्तक हुई ,छुई-मुई सी वो सिमट गई
अपनी माँ के कंपकंपाते पैरो से वो नन्ही सी जान लिपट गई
आख़िर कब तक ख़ौफ़ के साये में ,इन दोनों को जीना होगा
पल पल होकर के अपमानित, खून का घूँट पीना होगा
देखा है उन नन्ही आँखों ने, माँ पर जो अत्याचार हुए
उन बंद दरवाज़ों के पीछे ना जाने, कैसे कैसे दुर्व्यवहार हुए
हर चोट पर दिल टूटा उसका,पर ये कहानी जैसे अनंत है
बदल जाएँ कितने भी मौसम उनके हिस्से में ना कोई बसंत है
उसके कोमल हाथों का स्पर्श जैसे माँ के ज़ख़्मों का मरहम बन गया
सो जाती थी आँखों में आँसू लेकर हर सुबह होता था फिर जन्म नया
ना रोक सकी ना टोक सकी, कैसी इस रिश्ते की मर्यादा थी
उसका अस्तित्व पूर्ण नहीं क्यूँ ,हिस्से में ख़ुशियाँ क्यूँ आधी थी
भुला कर हर दर्द और पीढ़ा उसने ,रोज़ नए दिन का आग़ाज़ किया
और सिर्फ़ अपनी बेटी की ख़ातिर, अपना आत्म-सम्मान भी त्याग दिया
आख़िर क्यूँ नारी इतनी बेबस और लाचार हुई
क्यूँ नहीं मिला उसको समाज में उपयुक्त स्थान कोई
क्यूँ क़ुर्बानी के नाम पर बस उसकी ख़्वाहिशों की ही बली चढ़ी है
क्यूँ तिल तिल मरकर वो ख़ौफ़ के चौखट पर सदा खड़ी है
कब तक अबला बनकर सहेगी वो ,नृशंस समाज का अटल प्रहार
उसके दृढ़-संकल्प से ही रुकेगा उसपर होता हर अत्याचार