जून की गर्मियों में मिलके रोपा था इक बीज,
जगायी प्रेम की अगन जिसने मेरे तुम्हारे बीच,
भावनाओं के अंकुर फूटें विश्वास की थी नींव,
वन में माँ सीता के जैसे प्रभु राम की थी प्रीत।
चिलचिलाती धूप की बाँहें, मन में लिए आस,
मुस्कुराता रहा खड़ा,हिला न उसका विश्वास,
निस–दिन प्यार को हमारे जो बना गया ख़ास,
सुनहरा रंग लिए नन्हा पौधा था वो अमलतास।
ज्यों बढ़ते हुए धरा पर ठोस जमाया उसने तन,
त्यों सहज रूप दृढ़ता से मिलते गए हमारे मन,
निस्वार्थ स्नेह भरी निशानी का ये बीज–रोपण,
समझा गया बिना अपेक्षा, क्या होता समर्पण।
पीली धूप में रवि किरण से भरे तुमने,पत्तों के रंग,
अंग प्रत्यंग में उसी तरह हमने भरी अनुरागी तरंग,
कनक से सदा चमकते,हो धरती पर या पेड़ों संग,
कुंदन सा अटूट प्रणय हमारा चढ़े न कोई और रंग।
कठोर तपस्या करते फिर भी रहते हरदम जीवंत,
प्रेरणा से सम्पूर्ण जीवन का तुम्हारे न कोई अंत,
सबक़ प्रेम का ऐसा,डाल सके न कोई रंग में भंग,
अमलतास सिखाया तुमने निस्वार्थ जीने का ढंग।