मैं और मेरा सावन का झूला,
मुझको वो मधुर संयोग कभी भी ना भूला,
जब पहली बार मैं उनके रंग में रंगी थी,
छोड़ के बाबुल का घर, पिया के संग मैं चली थी ।
उनके स्नेह में तन-मन सिंचित था,
मेरे हृदय में संदेह ना किंचित् था।
फिर आया बारिश का मौसम सुहाना,
उनके आलिंगन में सावन के झूलो पे, वो पींगे बढ़ाना,
अठखेलियाँ करना, रूठना और मनाना,
प्रेम के रस मे बस भीगते ही जाना।
सब कुछ एक मधुर सपने की तरह दिल को लुभाता था,
लोगो को छलना मुझे कभी भी ना आता था।
मैं भोली भाली थी, उनके प्यार में पागल,
किंतु मेरे दुर्भाग्य ने मुझे कर दिया घायल।
शांत, सरल, एक सहमी सी हिरणी, मैं रही अनभिज्ञ
कि उनके सपनों की प्रेयसी थी एक चतुर नटनी।
ज़ख़्म कभी फिर वो भर ना सके,
उनकी बेवफ़ाई के क़िस्से कभी थम ना सके।
आज भी जब देखती हूँ मैं सावन के झूले,
वो निष्ठुर हृदय मुझे भुलाए ना भूले।