कहाँ तक लिखूँ मैं, एक मज़दूर की कहानी,
हर घर में है अन्न, हर नल में है पानी।
कर्मठ हाथों से लिखते हैं, सुबह से शाम तक की रवानी,
हर साँझ है सुनहरी, हर रात है चाँदनी।
माटी को सोना बनाते हैं, मेहनत की है पूँजी,
सपनों को आकार हैं देते, बनाते अट्टालिकाएँ ऊँची-ऊँची।
जीवन इनका संघर्षों से भरा है, मुट्ठी भर है आमदनी,
न पहुँचें जिस दिन काम पर ये, नहीं मिलती इनको दिहाड़ी।
बनता है कभी कोल्हू का बैल, जैसे हो सज़ा काला पानी,
पोछ कर पसीना अपना, आगे बढ़ने की भरता है हामी।
सूरज से झुलसता तन-मन, लू ने मुश्किल कर दी है खड़ी,
फिर याद आती है, पेट में सुलगती भूख की आग, और बच्चे की किलकारी।
ईंट के भट्टे में गिर कर, आज फिर एक मज़दूर ने जान गँवा दी,
पत्नी की निरीह, बेबस आँखों में उमड़ा बाढ़ का पानी।
माँ की कोख से ही जो, सीख के आया था मज़दूरी,
आँख खुली जब दुनिया में तो, हाथ में थी कुल्हाड़ी।
है विश्वास इन्हें अपने मेहनतकश हाथों पर, चट्टान भी जिसने हिला दी,
सलाम है हाथों की चुभन को, घोर झंझावातों में भी कभी हिम्मत न हारी।