होली: ललिता वैतीश्वरन द्वारा रचित कविता


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होली में आज सखी खूब रंग डार के
मिल के गले, जीतेंगे फिर से दिल हार के

उड़ उड़ अबीर के रंग लिपट अंग में
प्रीत जगायेंगे फिर एक दूसरे के संग में

मार मार पिचकारी की रंगों की फुहार से
होगा अंबर लाल लाल अतरंगी बौछार से

बरस बरस भीगेंगे आँचल, भीगेंगे जलते तन मन
महक उठेंगे बरसों से झुलसते मन के आंगन

फाग गा, विरही मन की तरस दूर हो जायेगी
दूर से फिर लरज़ती हुई आवाज प्रिय की आयेगी

लपक झपक गुलाल के रंगों से तुम्हें दूँगी रंग
बावरी हो कर झूमूँगी लेकर झाँझर मृदंग

इस विरह की अग्नि पर फेर रंगों की माला
इन्द्रधनुषी गगन से बरसेगी प्रणय ज्वाला

भर भर रंग डालूँ , न रहे कोई बंजर मन
आ सखी, बुझा दें प्रेम से हर पीडा की चुभन

नाच नाच गा री सखी , होली के मधुर गीत
बहे प्यार की गंगा , उपजे इसमे केवल प्रीत


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