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मैं ही कोई मेहमान हूं

किसी मेहमान का

मेरे घर आना

पिछले कुछ समय से

मुझे अच्छा नहीं लग रहा

इसके पीछे का कारण स्पष्ट कर दूं कि 

मेरा घर मुझे अब मेरा घर नहीं

लग रहा

मुझे यह एक सराय लगने लगी है

मैं खुद से हो चली हूं परायी

दर्पण में देखूं तो

मुझे खुद का अक्स आजकल

अपना नहीं लग रहा

मां बाप के न रहने से

अनाथ हो जाती है तन्हाई भी

रूह भटकती रहती है

जब सुनती है भूली बिसरी यादों की

दिल के हर कोने में गूंजती

एक शहनाई सी

मुझे इस जगह

जहां मैं रहती हूं

लगने लगा है जैसे कि

मैं ही कोई मेहमान हूं

मेरा आदर सत्कार करने के लिए

लेकिन कोई मेजबान भी नहीं है यहां

घर घर की एक शक्ल

लिये तो होते हैं पर

दरअसल वह होते हैं खंडहर

जहां केवल दर्द में डूबी

आत्मायें भटकती हैं

जिस्म तो दिखते हैं

चलते फिरते लेकिन

वह महज सांसे भरती और

छोड़ती अंधेरे में डूबी

काली परछाइयां होती हैं

उनका स्वागत कोई नहीं

करता

हर तरफ से उन्हें मारा और

दुत्कारा जाता है

कहीं से पुचकारा नहीं जाता

मेहमान किसी का बनना या

किसी मेहमान को आमंत्रित

करने का साहस बटोरना

ऐसा उनका सौभाग्य कहां

पतझड़ के बाद बहार ही न

आये तो

एक सूखे दरख्त की डाली

बाग के माली के स्वागत के लिए

फूल कहां से खिलाये।