अपनी ही तस्वीर में अब अपना चेहरा पुराना सा लगने लगा है,
रंग, मौसम, पतझड़, बहार, ये सब बहाना सा लगने लगा है,
माना कि होते हैं हर इक तस्वीर के दो रुख़ मगर,
देखने वाले की निगाहों का फ़साना सा लगने लगा है।
मैं तो चाहती थी, ख़ुद की एक तस्वीर बनाना,
पर उसमें भरा हर रंग, तुम्हारा सा लगने लगा है,
जिस तरह तुम मुझे छोड़ गए थे तनो तन्हा,
उसी तरह इस तस्वीर का रंग भी बेगाना सा लगने लगा है।
सोचा कि भेज दूँ तुम्हें ये तस्वीर, तुम्हारा ही नाम लिख कर,
पर यक़ीन है मुझे, कि तुम्हें मेरा चेहरा अनजाना सा लगने लगा है,
वो फ़िज़ा जो तुम्हारी तरफ़ से बह कर मेरे सिम्त आती है,
उसने बताया मुझे, कि तुम्हें मेरा होना खलने सा लगा है।
मैं तो ख़ुद को तुम्हारे ही मन की तस्वीर समझ बैठी थी,
पर मेरी इस ख़ुशफ़हमी पर से पर्दा हटने सा लगा है,
तुमने तो मेरे दिल को महज़ एक तस्वीर ही समझा था,
तुम्हारी नज़रों से तुमने जो गर्द हटाई, तो मेरा चेहरा तुम्हें चमकता सा लगने लगा है।
पर अब मुझे अपनी तस्वीर पर सुकून नहीं, बेचैनी नज़र आती है,
रौशनी में बनी इस तस्वीर के पीछे अंधेरा सा दिखने लगा है,
सोचती हूँ, तस्वीरों के बाहर से जितना दिखता है, उससे ज़्यादा उसके अंदर क़ैद है,
ग़ौर से जो देखती हूँ, तो लगता है कि तस्वीर का हर एक पहलू कुछ कहने सा लगा है।