वन उपवन नदिया सागर
राही बना घूम-घूम कर
अब आंगन में तेरे रुक कर
दो पल को ठहर जाऊं
बन गुलमोहर का फूल प्रिये
अर्पण तुझको हो जाऊं
पंक्ति-पंक्ति उपन्यास बनी
पर तृष्णा मन की वही खड़ी
अब प्रेम गीत नया गा कर
तुझ में ही मैं रम जाऊं
बन गुलमोहर का फूल प्रिये
अर्पण तुझको हो जाऊं
वसंत पतझड़ आये जाए
बहार न मेरी मुरझा पाए
स्पर्श की तेरे सुषमा पाकर
हर रोज खिल-खिल जाऊं
बन गुलमोहर का फूल प्रिये
अर्पण तुझको हो जाऊं।।