ख्वाहिशें
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मेरी ख्वाहिश थी माँ कि-
बीज-रूप में तेरी कोख़ में मैं आऊँ,
पर चंद महीनों में ही मेरा अस्तित्व
मिटाने की सुगबुगाहट है आई ।
इस दुनिया को देखने की ख्वाहिश
क्या तेरी कोख़ में ही मिट जाएगी ?
क्षत-विक्षत,समूल नाश कर मेरा,
क्या माँ तुम खुश रह पाओगी ?
माँ !कैसे देखूँ तेरी रक्त-रंजित कोख़ को
तुझे असहाय पीड़ा में तड़पते-चीखते हुए।
क्या तू देख पाएगी माँ, मेरे चीथड़ों को?
या उठा पाएगी मुझे बचाने को एक आवाज़?
मेरी ख्वाहिश है कि मैं भी इंद्रधनुषी रंग देखूँ,
सूर्य-चंद्र, नील- गगन,सतरंगी जहां देखूँ।
रंग-बिरंगे तितलियों के जैसे मैं भी,
सपनों के पँख लगा ऊँची उड़ान भरूँ।
तेरी हर इच्छा पूरी करूँ,एक बेटी का फर्ज़ निभाऊं,
पढूँ-लिखूँ, कुछ बनकर दिखलाऊँ,
तेरा सिर गर्व से ऊँचा उठाऊँ।
बोल माँ, क्या उठा पाएगी तू एक साहसिक कदम?
या मौत के गर्त में धकेल देगी मुझे?
बोल माँ, क्या घोंट देगी मेरी चाहतों
का गला?
या फिर कर पाएगी पूरी मेरी अनसुनी ख्वाहिशें?