विजेता


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विजेता तो मैं थी ही। अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल आती थी। मेरी हमेशा यही कोशिश रहती थी कि मैं जो कुछ भी करूं उसमें हमेशा अपना सौ प्रतिशत दूं। उसका वांछित परिणाम भी मुझे फिर कभी हतोत्साहित नहीं करता था।

मैंने एक गायन की प्रतियोगिता में भाग लिया और उसमें प्रथम स्थान प्राप्त किया। अपनी इस सफलता की खुशी मैं औरों के साथ भी बांटना चाह रही थी।

मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा जब मेरी सबसे प्रिय अध्यापिका जो हमारे स्कूल की प्रधानाचार्या भी थी से मेरी एकाएक मुलाकात हो गई। वह मेरी प्रेरणा स्रोत थी और मेरा हमेशा उत्साहवर्धन करती थी। मेरे हाथ में लगा सर्टिफिकेट देखकर वह भी हमेशा की तरह ही मेरी खुशी में शरीक हो गई और मुझे ढेरों आशीष और शुभकामनाएं दी। वह हम बच्चों के साथ मिलकर एक बच्चा सी ही बन जाती थी। वह मेरी सफलता से बहुत खुश थी और मैं अपने वट वृक्ष की छत्रछाया में एक चिड़िया सी उनके साथ हंसती, खिलखिलाती, फुदकती, अनार के दाने बिखराती चारों तरफ चहचहा रही थी।


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