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फ़ासले: मनीषा अमोल द्वारा रचित कविता

वक़्त दर वक़्त, फ़ासले बढ़ते गये
थे क़रीब जितने, हम दूर होते गये
कशिश प्यार की जो थी, हमारे दरमयां
वो फिसल कर कहीं, छिटकते चले गये

बीते दिन कुछ और ही, बयान करते थे
कभी न बिछड़ने के, क़सीदे पढ़ते थे
एक ऐसा दौर आया, उन्हीं रिश्तों के
कच्चे धागों की गाँठ, उलझते चले गये

ज़िंदगी के पलछिन, बेहतरीन थे वो लम्हें
एक दूजे की बाहों में, इश्क़ की चादर में लिपटे
यादों की बारात, जो अब धूमिल हो चुकी
दायरे मोहब्बत के, सिमटते चले गये

कुछ अनकही बातें, जम सी गयीं लब पे
एहसासों की तकलीफ़, तैरती निगाहों में
दिल के किसी कोने में, बसे ख़्वाबों के रेले
ग़मों के सैलाब में, डूबते चले गये

एक आस है मन में, मिल जाओ गर कभी
हो शिकायतें फिर भी, शायद हो कसर बाक़ी
जज़्बात खोल कर रख दें, राबता-ए-इश्क़ की क़सम
मौक़ा-ए-ज़िंदगी के हम, तलाशते चले गये