सुनो प्रकृति
तुम्हारा आंचल बहुत विस्तृत,
विशाल और चहुं दिशाओं में फैला
हुआ है
तुम्हारा ओर छोर
तुम्हारे गूढ़ रहस्य
तुम्हारे बारे में हर बारीक जानकारी
और वह भी गहराई से
जानना मेरे या किसी के भी
बस की बात नहीं
मेरे हाथ में तो इतना भर है कि
मुझे अपनी खुली आंखों से जो
दिख जाये
जितना दिख जाये व
जितना समझ आये
उतना ही काफी है
तुम सिर से पांव तक
सौंदर्य की एक जीती जागती
मूरत हो
तुम्हारे रूप को, रंग को,
परम सौंदर्य को
बड़े से बड़ा चित्रकार न
अपनी चित्रकारी से
न कोई कवि अपनी कविता से
न कोई गीतकार अपने गीत से
न कोई व्यक्ति तुम्हारी प्रशंसा से
न कोई कलाकार अपनी
कला से
पूर्ण तौर पर उकेर सकता है क्योंकि तुम्हारी रचना भगवान के हाथों
हुई है और तुम
खुद में संपूर्ण हो
तुम्हारे हर कण में सांस है
प्रेम है
प्यास है
दया है
करुणा है
आस है
तुम हर कला में पारंगत हो
तुम्हें हर कठिनाई से निरंतर लड़कर
खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने का अभ्यास है
कोई चाहे तो प्रकृति मां से
कितना कुछ सीख सकता है
कहीं कोई आसरा न मिले तो
इसकी गोद में अपना सिर रखकर
अपना पूरा जीवन व्यतीत कर
सकता है
प्रकृति के सुंदर नजारों को ही
कोई गर एक के बाद एक
निहारता चले तो
जीवन का सफर कट जायेगा
पलक झपकते
पेड़ की घनेरी छांव के
तले न धूप लगेगी
नदी का बहता जल
पी लेगा तो न फिर प्यास लगेगी
फूलों का रसपान कर लेगा
तो न सुगंध के
दर्पणों से रहेगा वंचित
फल किसी पेड़ पर से तोड़कर
खा लेगा तो न सोयेगा कभी
रात में भूखा पेट
प्रकृति मां पर जो हो जायेगा
आश्रित तो
असहाय आंखों से न
देखना पड़ेगा इस दुनिया
में किसी गैर की चौखट को।