प्रभात का तेज हो गया अब मद्धम
सूर्य रश्मि अब दिखती है अल्पतम
तुम बिन !
व्योम से अब नक्षत्रों की वो झिलमिलाहट नहीं
चन्द्रमा से चकोर के मिलने की अब आहट नहीं
तुम बिन !
समीर की शीतलता अब देती है चुभन प्रखर
पत्तियों की सरसराहट से जैसे बहती पीड़ा लहर
तुम बिन !
काले जलचर भर देते हैं इन आँखों में नीर
रिमझिम फुहार से उठे हिय में मानो जन्मों का पीर
तुम बिन !
नील गगन से चारों ओर जब दिखता इद्रधनुष ज्वलंत
मेरे उर से उठती वेदना का नहीं दिखता अंत
तुम बिन !
मुस्कुराते चेहरे भर देते हैं मन में विषाद गहन
लगता अब निरर्थक, शून्य में लिप्त यह जीवन
तुम बिन !
इस संसार में अब कुछ भी तो नहीं जीने योग्य मधुर
सब कुछ निकट होते हुए भी सब कुछ कितना दूर
तुम बिन !