वह हमेशा आवेश में
तनाव में
क्रोध में, रोष में
जकड़ा ही रहता है
बिना किसी ठोस कारण
इसे मूर्खता की पराकाष्ठा नहीं कहेंगे तो फिर क्या कहेंगे
जिस पेड़ की डाली पर बैठा है उसे ही काट रहा
जिस भोजन की थाली में खा रहा
उसी में छेद कर रहा
अपने ही शुभचिंतकों को पहचान नहीं रहा
उनकी ही जड़े काट रहा
उन्हें ही रास्ते से हटा रहा
खुद को न जाने कितने
विकारों से बांधता चला जा रहा है
आने वाले कल में अपना ही
अहित चाह रहा है
अपनी क्रोध की अग्नि में
दूसरों को तो कम पर
खुद को ही जला रहा है
क्रोध की ज्वाला तो जैसे ही
भड़कनी शुरू हो उसे
तत्काल प्रभाव से शांत कर
लेना चाहिए
किसी के बहकावे में कभी नहीं
आना चाहिए
अपनी बुद्धि, अपने विवेक से
काम लेना चाहिए
क्रोध की अग्नि को
उसकी आरंभिक अवस्था में जो
नहीं किया शांत तो
वह ले लेगी एक विकराल
अग्निकांड का रूप जिसमें
सबसे पहले तबाह होंगे
जलकर खाक होंगे
स्वयं आप।