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     एक मुलाक़ात…: डॉ. सुबूही जाफ़र द्वारा रचित कविता

यूँ तो रोज़ाना सरे-राह लोगों से मुलाक़ात होती है,
उन लोगों का हाल चाल जानते हैं, ज़िंदगी का जायज़ा लेते हैं।
लेकिन आज दिल में ख़याल आया कि “ख़ुद” से मुलाक़ात की जाए,
ज़रा तबीयत से आज हाल-ए-दिल का जायज़ा लिया जाए।
जब गुफ़्तुगू शुरू की ख़ुद के साथ, कई बातों की तस्दीक़ हुई,
ख़ुद की ख़ुद से मुलाक़ात ने दिल को काफ़ी राहत दी।
जब अपने अंदर झाँका, तो अहसास हुआ, मुझमें भी हैं कमियाँ हज़ार,
सुधारना है ख़ुद को, दूसरों की ग़ीबत को करो दरकिनार।
समझ आया कि अगर ज़िंदगी में आगे बढ़ना है और जो चाहा उसे पाना है,
तो ख़ुद को इस तरह ढालूँ, कि लोग मेरी मुताबअत करें।
ख़ुदा से बस ये फरियाद है, कि मेरे अंदर मुझको ज़िंदा रखे,
मौत से कह दे कि अभी रुके थोड़ा और, बहुत सारे काम बाक़ी हैं।
दो पल की ही सही, ख़ुद से मुकम्मल मुलाक़ात हो गई,
जिस शख़्स को ज़िम्मेदारियों और फ़िक्र के बोझ तले भूल गए थे, उससे आज दो बात हो गई।
जिस तरह दरख़्त लगा कर भूल जाने से वो सूख जाता करते हैं,
उसी तरह ख़ुद को बचाए रखने के लिए ख़ुद से मुलाक़ात ज़रूरी है।
ख़ामोशी की चादर ओढ़े पता ही नहीं चलता, कब सुबह से शाम हो जाती है,
इन उलझी हुई ज़ुल्फों को सुलझाए हुए एक मुद्दत हो जाती है।
आँखों के नीचे की महीन लकीरों ने इस बात की गवाही दी है,
उम्र का एक पड़ाव कर चुकी हूँ पार, अगला अभी बाक़ी है।