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तृष्णा: अर्चना श्रीवास्तव ‘आहना’ द्वारा रचित कविता

खुशियां है सूक्ष्म,क्षण क्षण में रमण,कण-कण से विभोर,
उपलब्धियां हैं दाहक,लालसा की वाहक, रिक्तता की मोर।

संगी का छलावा,नयेपन कलावा, यथार्थ से परे होने के मलाल ,
धन, ऐश्वर्य,रूप, पदवी के मायावयी सवालों से मन हलाल।

प्रेम-प्रणय की कामना , अधूरेपन का दंश, उलाहना,
त्रस्त तंगदिली, संगदिली से,जिन्दादिली की चाहना।

तृष्णा, मोहपाश की कड़ी कारागार खडी़ , जिसमें खुद ही मन बंदी है
ईष्या,लोभ,दंभ में जकड़े मानस को, सिर्फ मुक्ति-तृप्ति की प्रतिध्वनि है।

सुखों की दासी,आजन्म से प्यासी तृष्णाएं,
अभाव की सृजन,कल्पनाओं की ऋणी अंखियां।

डर-खौफ की सतायी,लालसाओ की शहनाईयां गूंजती,
यथार्थ के कंक्रीटों राहों में ,ख्याली ,मोहक पुष्प बिछाती।

एक छलावा, मृग मरीचिका समान,भटकता अनजाना,
छिपाये अनंत कामनाएं ,बेचैनियां बेसबब,ढूंढे बहाना।

जामे मधुशाला है,हर कदम बदलते हसरतों के प्याले है,
एकनिष्ठ लक्ष्य-मोह संभालें, वर्ना शोर मचाते, बेखुदी के हवाले हैं।