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अबीर और गुलाल: डॉ. सुबूही जाफ़र “आतिका” द्वारा रचित कविता

फागुन और वसंत कर रहे, मिल कर हास परिहास,
रंगों ने भी रच दिया, एक नया इतिहास।

हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, खेलें होली साथ,
सर्वधर्म संभाव का है यह उत्सव आज।

रंग न जानें भेद कोई, क्या गोरा क्या असितांग,
चढ़ जाए जब हृदय पर, कर दे सबको समान।

रंगों का है खेल निराला, रहे न कोई उदास,
गले लगाओ, होली मनाओ, रहे न कोई नाराज़।

एक अनूठी रंगों की पोटली बना, भेजो उनको उपहार,
वीर जवान भी खेलें होली, हैं जो सीमा पर तैनात।

द्वेष, ईर्ष्या, घृणा आदि का, कर दो होलिका दहन,
महक हवा में हो ख़ुशी की, महकें केसर गुलाल।

कोयल कूहूँ कूहूँ गाए, भँवरे गाएँ राग,
प्रेम रस घुल जाए हवा में, बुराई का हो नाश।

उत्सव ऐसा मनाया जाए, बन जाएँ बिगड़े सब काज,
दिन प्रकाशमय हो जाए, उजली उजली हो रात।