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Astitva: A poem by Rajni Sardana

ना मिटा मेरा अस्तित्व 
मुझे भी जहां में आने दें 
तेरी ही तो परछाई बनूँगी  तुझे क्या करना ज़माने  से   
नहीं चाहिए जिनको बेटी 
वो मुझको बतलायें 
बिन माँ के वो कैसे
 इस दुनियां में आये 

कभी कोख से, कभी गोद से, कभी घर से मेरा बहिष्कार किया 
वाह रे मानव, 
सोच रह गई छोटी 
वैसे तूने क्या-क्या 
आविष्कार किया 
माँ चाहिए, बहु चाहिए, 
चाहिए तुमको बीवी 
पर आज तक ना समझ आई तुम्हे ये बात सीधी 
हर जगह सुचना पत्र 
लगाए लड़की भूणहत्या पाप हैं 
दिखावे को सबकुछ 
पैसो से सब माफ़ हैं 
मज़बूर करते हैं एक माँ को..अपनी बच्ची गिरा दें 
बेटा चलाएगा वंश इनका 
चाहे वो फिर वृद्धाआश्रम
भिजवा दें 
बदल अपनी सोच 
बेटा, बेटी दोनों जरूरी हैं 
कुदरत की अद्भुत रचना में 
दोनो  किरदार जरुरी हैं 
अस्तित्व मेरा मिटा के 
 क्या मिल जाता  हैं 
क्या एक बार भी मन में 
इंसानियत का दर्द नहीं आता हैं 
व्यर्थ हैं क्या मेरा समझाना  
हर मोड़ पर एक स्त्री को ही पड़ेगा, झुक जाना 
सहती हैं कितना, फिर भी तुम्हारा अस्तित्व संजो कर रखती है 
फिर भी बेटियां आज भी कोख में भी मरती हैं