सावन के झूले: नीरा यादव द्वारा रचित कविता


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सुनो! मेरे आँगन में कदंब नहीं है, कभी नहीं था,
और न ही मुझे मेरे कृष्ण मिले कभी,
मैं फ़िर भी झूली सावन के समस्त झूले,
मेरे मन की हर डाली पर, अपने कृष्ण के साथ,
बचपन में, अल्हड़ता में और एकान्त में भी,
मैंने अपने हर मौसम के सभी सावन बटोरे,
फ़िर उसमें कुछ आस की लड़ियाँ गूँथीं,
और बरबस झूली, दमभर झूली,
रस्सियों से लिपटी, हर वेग के साथ बदलती,
मेरे साँसों की आह्लादित गति,
मेरे रोम-रोम को प्रफुल्लित करती रही,
फुहारों से मन का कोना-कोना अभिसिंचित है,
सुनो! सबके आँगन कदंब नहीं होता,
सबके हिस्से कृष्ण भी नहीं आते,
लेकिन…
सबके अपने-अपने सावन होते हैं,
सबके अपने-अपने कदंब भी होते हैं,
तुम अपने सभी सावन एकत्र करो,
और एक झूला संबंधों की प्रीति का डालो,
फ़िर फैलने दो समस्त वातावरण में, स्नेह की सुगंधि।


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